Saturday, January 1, 2011

जुडाव

इस शाख से गिरा जो भी पत्ता,
हरा हो या सूखा  मेरा था,
वो बूढा बरगद मेरा था|
कल शाम से ही कुछ उम्स हुई, दिल उठ बैठा कर याद उसे,
उसका साया घनेरा था
वो बूढा बरगद मेरा था|

मैंने सपनो में बचपन में,
खेल में अकेले में,
उसे ही आकर घेरा था,
वो बूढा बरगद मेरा था|
जब मीत मिला परिहास किया, प्रेम किया उपहास किया,
उसकी झूलती लताओं में रस में डूबे और खेल लिया,
जीवन की हर उस आंधी को मैंने उसके ही संग झेला था,
वो बूढा बरगद मेरा था|

मेरा आँगन खुशियों से खिला,
कलियाँ खिलीं नन्ही नन्ही,
गुलाबी कोमल पंखुड़ियों वाली,
नन्ही पायल की छन छन का स्वर,
और बरगद की छांव का फेरा था,, 
वो बूढा बरगद मेरा था|

मेरी हाथों की लकीरों को पढ़,
माथे की पंक्तियों को अनुकरण कर,
जब सबने मुह फेरा था,
तब बूढ़े बरगद के नीचे जाकर ही मैंने अपना आंचल निचोड़ा था,
वो बूढा बरगद मेरा था| 

अब जब भी कुम्ल्हायी सी में,
अपने आँगन की कुर्सी पर,
बैठती हूँ थोड़ी देर भर,
तब देखकर ऊँची ऊँची अट्टालिकाएं,
हृदय रुदन से भर उठता है,
क्यूंकि टूटा मेरा सपना सुनेहरा था,
वो बूढा बरगद मेरा था|
-विजया


  

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