Saturday, January 1, 2011

जीवन पथ पर

जब कभी भी में अकेली होती हूँ,
जब कभी भी में साए सी लगती हूँ,
रस्ते टेढ़े मेढ़े पगडंडियों पर लेटे,
पत्तों पर जड़ी ओंस और जमीन पर बिछी दूब,
जब चिड़ियाँ चेह्चातीं हैं कुछ दूर चलने पर|ऐसे लगता है जैसे कोई चल रहा है साथ,
जैसे कोई पकड़े है मेरा हाथ,
एक अपना सा झोंका छु जाता है मुझे,
कुछ दूर चलने पर|

सच्चाइयों  पर दिन भर लेटे लेटे, 
जब भी ओढती हूँ स्वप्नलोक की चादर,
तब उनीदी आँखों में सजे सपने कई ,
पलकों के टूटने के साथ ही बिखर पड़ते हैं जो मोती से,
काल्पनिकता से मढ़े हुए, धुली पुछी वास्तविकता वाले,
निद्रालोक में ही हो जाते है विलीन,
और वास्तविकता से परिचय होता है मेरा,
कुछ दूर चलने पर|

दीवारों पर टंगी यादें और मेजों  पर सजा प्यार,
रास्ता देखते हैं,
किसीका,
वास्तविकता से भरा यह जीवन काल्पनिकता का कृतज्ञ है,
क्योकि जो भी मर्त्य है,
उसे सजीव रखती है यह अपने पास,
जिससे प्रज्वलित  होती है एक आस,
आस पाने की ज़िन्दगी को,
आस जीने की ज़िन्दगी को,
आस दुखों को दरकिनार करने की,

रास्तों में जब दुखों से टकराकर पाँव ठहर जाते हैं मेरे,
तब मेरा परिचय होता है,
राह चलती खुशियों से,
और वे मुझसे कहती हैं ,
चलो कुछ दूर और चलते हैं| 

-विजया 

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