सन्यासी
शांतिपूर्वक
हर दिन
वह गतिबद्ध होता है
नगर के भवन समूह की ओर
आगे और पीछे
प्रातः से संध्या
इस वक्र से उस वक्र तक
एक व्यक्ति की खोज में
जो उसके मन का अध्ययन कर सके
अपने हृदय की वाणी से
क्यूंकि
न्यून भी बहुतेरा है
जब आत्मा और देह एक हों
क्यूंकि
तुम पुनः पाओगे जो भी प्रदान करोगे
और वो जो दान नहीं किया विलुप्त हो जायेगा
-अशोक भार्गव की कविता 'हेर्मिट' से अनुवादित
No comments:
Post a Comment