प्रतीक
अपराह का सूर्य
एक अग्नि पिंड स्पर्श करता
क्षितिज को
गिरिजा के भीतर गायी जा रहीं स्तुतियाँ
पूर्ति करती वायु का सूक्तियों से
पथ खोजतीं घर का
एक बाड़ा विभाजित करता
पादरी के मंच से श्रोताओं को
जो की ज्ञानमय हैं
बदलते हुए प्रकाश से
जो निथर कर आ रहा है
धब्बेदार कांच से
सृजन करती गिरती हुई ईशु की प्रतिमा का
क्रूश से गिरी और बड़े में अटकी हुई
जागृत करो देवों को
पोछो मवाद
बनाओ स्थान निराश्रय, निर्धन
एवं अन्य लोकिक विदेशियों के लिए
क्यूंकि यह एक प्रतीक है
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